लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
इतने में एक
बुढ़िया सिर पर
टोकरी रखे आकर
खड़ी हो गई
और बोली-बहू,
लड़कों के लिए
भुट्टे लाई हूँ,
क्या तुम्हारे मियाँ
आ गए?
कुल्सूम बुढ़िया के साथ
कोठरी में चली
गई। उसके कुछ
कपड़े सिए थे।
दोनों में इधार-उधार की
बातें होने लगीं।
ऍंधोरी रात नदी
की लहरों की
भाँति पूर्व दिशा
से दौड़ी चली
आती थी। वे
ख्रडहर ऐसे भयानक
मालूम होने लगे,
मानो कोई कबरिस्तान
है। नसीमा और
साबिर, दोनों आकर ताहिर
अली की गोद
में बैठ गए।
नसीमा ने पूछा-अब्बा, अब तो
हमें छोड़कर न
जाओगे?
साबिर-अब जाएँगे,
तो मैं इन्हें
पकड़ लूँगा। देखें,
कैसे चले जाते
हैं।
ताहिर-मैं तो
तुम्हारे लिए मिठाइयाँ
भी नहीं लाया।
नसीमा-तुम तो
हमारे अब्बाजान हो।
तुम नहीं थे,
तो चचा ने
हमें अपने पास
से भगा दिया
था।
साबिर-पंडाजी ने हमें
पैसे दिए थे,
याद है न
नसीमा?
नसीमा-और सूरदास
की झोंपड़ी में
हम-तुम जाकर
बैठे, तो उसने
हमें गुड़ खाने
को दिया था।
मुझे गोद में
उठाकर प्यार करता
था।
साबिर-उस बेचारे
को एक साहब
ने गोली मार
दी अब्बा! मर
गया।
नसीमा-यहाँ पलटन
आई थी अब्बा,
हम लोग मारे
डर के घर
से न निकलते
थे, क्यों साबिर?
साबिर-निकलते, तो पलटनवाले
पकड़ न ले
जाते!
बच्चे तो बाप
की गोद में
बैठकर चहक रहे
थे; किंतु पिता
का धयान उनकी
ओर न था।
वह माहिर अली
से मिलने के
लिए विकल हो
रहे थे, अब
अवसर पाया, तो
बच्चों से मिठाई
लाने का बहाना
करके चल खड़े
हुए! थाने पर
पहुँचकर पूछा, तो मालूम
हुआ कि दारोगाजी
अपने मित्रों के
साथ बँगले में
विराजमान हैं। ताहिर
अली बँगले की
तरफ चले! वह
फूस का अठकोना
झोंपड़ा था, लताओं
और बेलों से
सजा हुआ। माहिर
अली ने बरसात
में सोने और
मित्रों के साथ
विहार करने के
लिए इसे बनवाया
था। चारों तरफ
से हवा जाती
थी। ताहिर अली
ने समीप जाकर
देखा, तो कई
भद्र पुरुष मसनद
लगाए बैठे हुए
थे। बीच में
पीकदान रखा हुआ
था। खमीरा तम्बाकू
धुऑंधार उड़ रहा
था। एक तश्तरी
में पान-इलायची
रखे हुए थे।
दो चौकीदार खड़े
पंखा झल रहे
थे। इस वक्त
ताश की बाजी
हो रही थी।
बीच-बीच में
चुहल भी हो
जाती थी। ताहिर
अली की छाती
पर साँप लोटने
लगा। यहाँ ये
जलसे हो रहे
हैं, यह ऐश
का बाजार गर्म
है, और एक
मैं हूँ कि
कहीं बैठने का
ठिकाना नहीं, रोटियों के
लाले पड़े हैं।
यहाँ जितना पान-तम्बाकू में उड़
जाता होगा, उतने
में मेरे बाल-बच्चों की परवरिश
हो जाती। मारे
क्रोधा के ओठ
चबाने लगे। खून
खौलने लगा। बेधाड़क
मित्रा-समाज में
घुस गए और
क्रोधा तथा ग्लानि
से उन्मत्ता होकर
बोले-माहिर! मुझे
पहचानते हो, कौन
हूँ? गौर से
देख लो। बढ़े
हुए बालों और
फटे हुए कपड़ों
ने मेरी सूरत
इतनी नहीं बदल
डाली है कि
पहचाना न जा
सकूँ। बदहाली सूरत
को नहीं बदल
सकती। दोस्तो, आप
लोग शायद न
जानते होंगे, मैं
इस बेवफा, दगाबाज,
कमीने आदमी का
भाई हूँ। इसके
लिए मैंने क्या-क्या तकलीफें
उठाईं, यह मेरा
खुदा जानता है।
मैंने अपने बच्चों
को, अपने कुनबे
को, अपनी जात
को इसके लिए
मिटा दिया, इसकी
माँ और इसके
भाइयों के लिए
मैंने वह सब
कुछ सहा, जो
कोई इंसान कह
सकता है। इसी
की जरूरतें पूरी
करने के लिए,
इसके शौक और
तालीम का खर्च
पूरा करने के
लिए मैंने कर्ज
लिए, अपने आका
की अमानत में
खयानत की और
जेल की सजा
काटी। इन तमाम
नेकियों का यह
इनाम है कि
इस भले आदमी
ने मेरे बाल-बच्चों की बात
भी न पूछी।
यह उसी दिन
मुरादाबाद से आया,
जिस दिन मुझे
सजा हुई थी।
मैंने इसे ताँगे
पर आते देखा,
मेरी ऑंखों में
ऑंसू छलक आए,
मेरा दिल बल्लियों
उछलने लगा कि
मेरा भाई अभी
आकर मुझे दिलासा
देगा और खानदान
को सँभालेगा। पर
यह एहसान-फरामोश
आदमी सीधा चला
गया, मेरी तरफ
ताका तक नहीं,
मुँह फेर लिया।
उसके दो-चार
दिन बाद यह
अपने भाइयों के
साथ यहाँ चला
आया, मेरे बच्चों
को वहीं वीराने
में छोड़ दिया।
यहाँ मजलिस सजी
हुई है, ऐश
हो रहा है,
और वहाँ मेरे
ऍंधोरे घर में
चिराग-बत्ती का
भी ठिकाना नहीं।
खुदा अगर मुंसिफ
होता, तो इसके
सिर पर उसका
कहर बिजली बनकर
गिरता। लेकिन उसने इंसाफ
करना छोड़ दिया।
आप लोग इस
जालिम से पूछिए
कि क्या मैं
इसी सूलूक और
बेदरदी के लायक
था, क्या इसी
दिन के लिए
मैंने फकीरों की-सी जिंदगी
बसर की थी?
इसको शरमिंदा कीजिए,
इसके मुँह में
कालिख लगाइए, इसके
मुँह पर थूकिए।
नहीं, आप लोग
इसके दोस्त हैं,
मुरौवत के सबब
इंसाफ न कर
सकेंगे। अब मुझी
को इंसाफ करना
पड़ेगा। खुदा गवाह
है और खुद
इसका दिल गवाह
है कि आज
तक मैंने इसे
कभी तेज निगाह
से भी नहीं
देखा, इसे खिलाकर
खुद भूखों रहा,
इसे पहनाकर खुद
नंगा रहा। मुझे
याद नहीं आता
कि मैंने कब
नए जूते पहने
थे, कब नए
कपड़े बनवाए थे,
इसके उतारों ही
पर मेरी बसर
होती थी। ऐसे
जालिम पर अगर
खुदा का अजाब
नहीं गिरता, तो
इसका सबब यही
है कि खुदा
ने इंसाफ करना
छोड़ दिया।
ताहिर अली ने
जलप्रवाह के वेग
से अपने मनोद्गार
प्रकट किए और
इसके पहले कि
माहिर अली कुछ
जवाब दें, या
सोच सकें कि
क्या जवाब दूँ,
या ताहिर अली
को रोकने की
चेष्टा करें, उन्होंने झपटकर
कलमदान उठा लिया,
उसकी स्याही निकाल
ली और माहिर
अली की गरदन
जोर से पकड़कर
स्याही मुँह पर
पोत दी, तब
तीन बार उन्हें
झुक-झुककर सलाम
किया और अंत
में यह कहकर
वहीं बैठ गए-मेरे अरमान
निकल गए, मैंने
आज से समझ
लिया कि तुम
मर गए और
तुमने तो मुझे
पहले ही से
मरा हुआ समझ
लिया है। बस,
हमारे दरमियान इतना
ही नाता था।
आज यह भी
टूट गया। मैं
अपनी सारी तकलीफों
का सिला और
इनाम पा गया।
अब तुम्हें अख्तियार
है, मुझे गिरफ्तार
करो, मारो-पीटो,
जलील करो। मैं
यहाँ मरने ही
आया हूँ, जिंदगी
से जी भर
गया, दुनिया रहने
की जगह नहीं,
यहाँ इतनी दगा
है,इतनी बेवफाई
है, इतना हसद
है, इतना कीना
है कि यहाँ
जिंदा रहकर कभी
खुशी नहीं मयस्सर
हो सकती।